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Tuesday, 27 May 2014

कुरुक्षेत्र अब पुकारे





























समय शेष है, कार्य अधिक है,
करना भी है पूरा;
किन्तु वत्स, जब स्वयं साथ मैं,
फिर क्यों रहे अधूरा।
उठो वत्स हे पार्थ आज फिर,
वही सारथी केशव है ,
चिंघाड़ रहा  कुरुक्षेत्र फिर,
देख सामने कौरव है।
पांच तुरंगो से सज्जित रथ,
मैं स्वयं डोर जब खींचे,
होतव की चिंता फिर कैसी,
ये विजय-वाहिनी पीछे ।
घनघोर पाप जब,उमड़-घुमड़ कर;
क्षितिज-क्षितिज मँडराता है,
तब रक्त पिपाशू भूमण्डल भी,
'रक्त-रक्त' चिल्लाता है।
दुल्हन सी सज कर कुरुक्षेत्र की,
तरुणाई है छटक रही,
रद-पट रँग दो,माँग भी भर दो,
बस खून बिना ही खटक रही,
श्रिष्टि सृजित करती मुझ-तुझ को,
शत-सहस्र युग के पश्चात;
चरम अनय से व्याकुल भू पर,
होता जब अतिशय उत्पात।